Monday, March 25, 2013

सचिन के टेस्ट क्रिकेट से सन्यास लेने से खत्म होगा क्रिकेट का आकर्षण



सभी के मन में बस एक ही सवाल है कि लगातार फ्लॉप होने के बावजूद सचिन तेंदुलकर क्रिकेट से सन्यास क्यों नहीं ले रहे? लेकिन सचिन के अब तक के खेल को देखकर हर क्रिकेट प्रेमी यही चाहता है कि सचिन अभी और खेलें क्योंकि सचिन तेंदुलकर भले ही अच्‍छा प्रदर्शन न कर पा रहे हो लेकिन उन्‍हें अब भी टेस्‍ट क्रिकेट खेलते रहना चाहिए क्‍योंकि वह टेस्‍ट का एक मुख्‍य आकर्षण हैं अगर वह टेस्‍ट से भी सन्‍यास ले लेते हैं तो टे‍स्‍ट क्रिकेट खत्‍म हो जाएगा। सच तो यह है कि सचिन टेस्‍ट के लिए ही बने हैं। उनकी फिटनेस आज भी भारत के कई युवा खिलाडि़यों से बेहतर है।

सचिन के आलोचकों का कहना है कि सचिन अपने एड प्रेम के कारण क्रिकेट को मोह नहीं त्याग पा रहे हैं, हालांकि उनके आलोचकों को एक बात जरुर ध्यान रखना चाहिए कि ये वही सचिन हैं, जिनके बल्ले के खौफ ने दुनिया के सभी गेंदबाजों को रुलाया है।
उनके प्रशंसकों का मानना है कि सचिन के टेस्ट क्रिकेट से सन्यास के बाद क्रिकेट बहुत कुछ खो देगा क्योंकि यह दिग्गज भारतीय बल्लेबाज खेल के लिए "माराडोना और पेले को एक साथ रखने" के बराबर है।
सचिन ने अपने अब तक के कैरियर में रिकार्डो का जो पहाड़ मैदान में खड़ा किया है उसे शायद ही आने वाले दिनों में कोई छू पाए । सचिन के नाम वन डे , टेस्ट मैचो में सबसे अधिक मैच , सबसे अधिक रन , शतक, अर्धशतक बनाने का रिकॉर्ड जहाँ दर्ज  है वहीँ सबसे अधिक मैन आफ द मैच से लेकर  मैन आफ द सीरीज जीतने तक के रिकॉर्ड दर्ज हैं। तभी सर डॉन ब्रेडमैन ने एक दौर में सचिन में अपना अक्स देखा था और शेन वार्न  सरीखे कलाई के जादूगर की रातो की नीद को उड़ा डाला था।

सचिन के नाम अन्तर्राष्ट्रीय  क्रिकेट में 100 शतको का रिकॉर्ड दर्ज है । फ़रवरी 2010 में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ वन डे में  दोहरा शतक लगाने  वाले पहले खिलाडी बनने के साथ ही गेदबाजी में अपना कमाल 154 विकेट लेकर दिखाया । साझेदारी बनाने से लेकर साझेदारी तोड़ने तक में सचिन का कोई सानी नहीं  था । दो बार उन्होंने वन डे मैचो में एक साथ 5 विकेट झटकने के साथ ही सर्वाधिक 62  बार मैन आफ द मैच से लेकर 15 बार मैन आफ द सीरीज का रिकॉर्ड अपने नाम किया।  वाल्श से लेकर डोनाल्ड , अकरम से लेकर वकार , शोएब अख्तर से लेकर ब्रेट ली और फिर शेन वार्न  से लेकर  मुरलीधरन सबकी गेदबाजी से सामने सचिन ऐसे चट्टान की  भांति डटे  रहते थे, जिनका विकेट हर किसी के लिए अहम हो जाता था।
15 नवम्बर 1989 को पाकिस्तान के विरुद्ध  महज 16 साल की उम्र में घुंघराले बाल वाले इस युवा खिलाडी ने जब  अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण किया था को किसी ने अंदाजा नहीं लगाया था कि भविष्य में यह खिलाडी  क्रिकेट के  देवता के देवता के रूप में पूजा जायेगा लेकिन सचिन ने अपनी प्रतिभा 1988 में ही दिखा दी जब अपने बाल सखा  विनोद काम्बली के साथ  664 रन की रिकॉर्ड साझेदारी कर इतिहास रच  डाला  था । पाकिस्तान के दौरे में अब्दुल कादिर की गुगली पर उपर से छक्का जड़कर उन्होंने अपने इरादे  जता  दिए थे । यही नहीं उस दौर को अगर याद  करें तो सियालकोट के टेस्ट में एक बाउंसर सचिन की नाक में जाकर लग गया । नाक से खून बह रहा था लेकिन इन सबके बीच सचिन मैदान से बाहर नहीं गए और डटकर गैदबाजो  का सामना किया ।

1990 में इंग्लैंड का ओल्ड ट्रेफर्ड सचिन का पहले शतक का गवाह बना जब उन्होंने विदेशी धरती से अपनी अलग पहचान बनाने में सफलता पायी । इसके बाद सिडनी और पर्थ की खतरनाक समझी जाने वाली पिचों पर सचिन ने अपनी शतकीय पारियों से प्रशंसको का दिल जीत लिया । इसके बाद तो उनके नाम के साथ हर दिन नए रिकॉर्ड जुड़ते गए । आज सचिन की इन उपलब्धियों के पहाड़ पर कोई खिलाडी दूर दूर तक उनके पास  तक नहीं फटकता ।  सचिन में एक खास तरह की विशेषता भी है जो उनको अन्य  खिलाडियों से महान बनाती है । उनका क्रिकेट के प्रति जज्बा देखते ही बनता है और पूरे करियर के दौरान उन्होंने इसे जिया । शालीन और शांतप्रिय होने के अलावे धैर्य और अनुशासन उनमे ऐसा गुण था कि विषम परिस्थितियों में में सचिन अपना रास्ता खुद से तय करते थे । कभी शून्य पर भी आउट हो जाते तो आलोचकों को करारा  जवाब अपने खेल से ही देते । टीम इंडिया में एक मार्गदर्शक के तौर पर उन्होंने युवाओ को एक नया प्लेटफार्म दिया जहाँ उनसे सलाह मांगने वालो में खुद धोनी , युवराज , भज्जी सरीखे खिलाडी शामिल रहते थे । प्रत्येक खिलाडी उनसे कुछ नया सीखने की कोशिश में रहता । यह हमारे लिए फक्र की बात है सचिन को हमने उनके शुरुवाती  दौर से खेलते हुए देखा है । आने वाले भावी पीढियों  को  हम सचिन की गौरव गाथा बड़े गर्व के साथ सुना पाएंगे ।

सचिन के लिए वर्ल्ड कप एक सपना था और धोनी की अगुवाई वाली टीम का हिस्सा बनने पर उन्हें काफी नाज है । इसकी झलक  वन डे सन्यास के समय उनके द्वारा दिए बयानों में साफ झलकी जहाँ उन्होंने टीम के वर्ल्ड कप जीतने पर  ख़ुशी जताई और अगले वर्ल्ड कप के लिए अभी से एकजुट हो जाने की बात कही । सचिन जैसे कोहिनूर अब भारत को शायद ही मिलें क्युकि  सचिन जैसे समर्पण की बात आज के खिलाडियों में नदारद है । क्रिकेट आज एक मंडी  में तब्दील हो चुका  है जहाँ खिलाडियों की करोडो में बोलियाँ लग रही हैं । सारी  व्यवस्था मुनाफे पर जा टिकी है जहाँ खेल का पेशेवराना पुराना अंदाज गायब है जो अस्सी और नब्बे के दशक में देखने को मिलता था । आज के युवा खिलाडियों की एक बड़ी जमात ट्वेंटी  ट्वेंटी के जरिये अपनी प्रतिभा को दिखा रही है जबकि वन डे और टेस्ट क्रिकेट से उनका मोहभंग हो गया है । यही नहीं इसमें उनका प्रदर्शन भी फीका ही रहा करता है । ऐसे में बड़ा सवाल यहीं से खड़ा होता है सचिन, गांगुली, राहुल , वी  वी एस  वाली लीक पर कौन आज के दौर में चलेगा वह भी उस दौर में जब ट्वेंटी ट्वेंटी टेस्ट से लेकर वन डे को लगातार निगल रहा है ।

 बहरहाल सचिन ने वन डे से सन्यास के बाद अभी टेस्ट मैच खेलने की बात कही है । यह उनके करोडो चहेते प्रशंसको के लिए राहत की खबर है लेकिन उनके वन डे से अचानक लिए गए सन्यास पर  सस्पेन्स अब भी बना है । आगे भी शायद यह बना रहे क्युकि मैदान से अन्दर और बाहर सचिन जिस शानदार  टाइमिंग से खेलकर कई लोगो को आईना दिखाते थे वैसी टाइमिंग उनके  सन्यास में देखने को नहीं मिली । जाहिर है सचिन पहली बार चयनकर्ताओ  के निशाने पर सीधे तौर पर आये और आखिरकार दबाव  झेलने की वजह से उन्होंने वन डे से अचानक सन्यास की घोषणा कर सभी को चौंका ही  दिया ।  इतना कुछ करने के बावजुद अगर उनकी काबिलियत पर अंगुली उठायी जाती है तो यह उनका अपमान ही है। टेस्ट क्रिकेट से सन्यास की बात उनके उपर ही छोड देना चाहिए, क्योंकि क्रिकेट के इस  शलाका पुरुष के उपर संन्यास के लिए दवाब डालना उनका अपमान करना ही है।

'27 साल' की युवा भारतीय टीम ने 81 साल के टेस्ट इतिहास में फहराया “धोनी झंडा”


ऐतिहासिक फिरोजशाह कोटला के मैदान पर '27 साल' की युवा भारतीय टीम ने भारत के 81 साल के टेस्ट इतिहास में पहली बार आस्ट्रेलिया को हराकर आस्ट्रेलिया के खिलाफ चार मैचों की श्रृंखला में क्लीनस्वीप  किया। कोटला के 65 साल के टेस्ट इतिहास में अनेक बेमिसाल रिकॉर्ड बने हैं। उनमें से कई रिकार्ड अब भी कायम हैं लेकिन जब भी इस मैदान पर कोई नया मैच खेला जाता है तो उनके टूटने की सम्भावना बनी रहती है।

भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच 22 मार्च से चौथे टेस्ट मैच के शुरू होते ही भारतीय टीम के इस मैदान पर 26 साल से अजेय रहने के रिकॉर्ड के ध्वस्त होने का फिर से खतरा उत्पन्न हो गया था।
भारतीय टीम पर इसे बचाते हुए ऑस्ट्रेलिया को इस मैदान पर 1959 के बाद पहली जीत हासिल करने से रोकने की चुनौती भी थी। तीन दिनों में जीत हासिल करके महेंद्र सिंह धौनी की टीम ने इस रिकॉर्ड के साथ-साथ दिल्लीवासियों के भरोसे को भी बरकरार रखा है।
बीते 27 साल से कोटला, भारतीय टीम के लिए भाग्यशाली रहा है, क्योंकि इस दौरान यहां खेले गए नौ मैचों में से भारत एक भी हारा नहीं है। कोटला में भारत को अंतिम बार 29 नवम्बर, 1987 में हार मिली थी, जब वेस्टंडीज ने उसे पांच विकेट से हराया था।
उससे पहले के 10 मैच भी भारत के लिए काफी खराब रहे थे। 1972 से लेकर 1987 के बीच भारत को 1972, 1974 और 1976 में क्रमश: इंग्लैंड, वेस्टइंडीज और इंग्लैंड से हार मिली थी।
इसके बाद 1979 से 1983 के बीच पांच मैच बेनतीजा रहे और फिर 1984 में भारत को एक बार फिर इंग्लैंड ने पटखनी दी। वेस्टइंडीज से 1987 में मिली हार से ठीक पहले भारत और ऑस्ट्रेलिया की टीमें इस मैदान पर भिड़ी थीं, जिसका नतीजा नहीं निकल सका था।
वर्ष 1987 में भारत ने वेस्टइंडीज से पटखनी खाने के बाद इस मैदान पर अपनी जीत का अजेय क्रम शुरू किया और उसके बाद कुल 10 मैचों में से नौ में जीत हासिल की। वर्ष 2008 में ऑस्ट्रेलिया के साथ यहां एक बार फिर भिड़ंत हुई थी, जो बेनतीजा रहा था।
इस मैदान पर भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच यह सातवां मैच हुआ, जिसमें से अब तक भारत को तीन मैचों में जीत मिली है जबकि एक में ऑस्ट्रेलिया जीता है। तीन मैच बराबरी पर छूटे हैं। भारत ने 1996 और 1969 में ऑस्ट्रेलिया को हराया था।

Wednesday, March 6, 2013

ये उड़ान पंखों की नहीं हौसलों की है...


जज्बा और जुनून हो तो इंसान लाख कमियों के बावजूद अपनी मंजिल को पा ही लेता है फिर चाहे शरीर साथ दे या ना दे। ऐसे में व्यक्ति अपने हौसलों को ही अपने पंख के तौर पर इस्तेमाल कर अपनी उड़ान को पूरा करने की क्षमता रखता है। चाहे कला के क्षेत्र की बात हो या फिर जीवन यापन के लिए नौकरी करने की। हौंसला हर घड़ी इंसान को अपनी पहुँच से ऊपर तक मेहनत करने को प्रोत्साहित करता है, जो वास्तविकता में कार्य परिणीत भी होती है। ऐसे में जब खेल की बात आती है तो लोग अक्सर सोचने लगते हैं कि शारीरिक अक्षमता के लोग कैसे खुद को पहचान दिया पायेंगे, लेकिन आज खेलों में भी अपने दृढ़ निश्चय के बल पर शारीरिक अक्षमता को मात देते हुए कईयों ने अपनी अलग पहचान बना ली है।
खेल चाहे जो भी हो पर एक बात तो साफ है कि पैसे और शोहरत की कमी इसमें नहीं है। तभी तो बहुतेरे लोग इसे अपना प्रोफेशन बनाने में लगे हैं। इसमें शारीरिक सक्षम लोगों को तो लम्बी फौज है, पर एक वर्ग ऐसा भी है जो खेल को केवल जुनून और जीवन की कठिनाईयों से न हारने की जिद के आधार पर इसे अपना रहा है। इस वर्ग का विशेषण यह है कि शरीर के साथ नहीं देने के बावजूद उनका जज्बा ही उन्हें लगातार आगे बढ़ने का हौसला देते हैं। इन्हीं हौसलों के जरिए ही आज दुनिया भर में कई ऐसे खेल अस्तीत्व में आ गये हैं जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मसलन जिसके पैर साथ ना देते हो वह व्यक्ति भला कभी बास्केट बाल खेल सकता है, या फिर जिसने दुनिया के विभिन्न रंगों को देखा न हो वह टेनिस के खेल में बेहतरीन शॉट या निशानेबाजी में लक्ष्य पर सटिक निशाना लगा सकता है। ऐसे और कई सवाल हैं जो दिमाग में उलझन पैदा करते हैं लेकिन अब यह सब सच हो गया है। तकनीक के कमाल और खिलाड़ियों के कभी हार न मानने के जज्बे ने सब कुछ कर दिखाया है।

खेल और उसके खिलाड़ी :-
पैरा बैडमिंटन- कहते हैं मंजिलें उन्हीं को मिलती हैं जिनके सपनों में जान होती है, पंख से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है..। ये पंक्तियां अबोहर के नजदीकी गांव खुइयां सरवर के बैंडमिंटन खिलाड़ी संजीव कुमार पर पूरी फिट बैठती हैं। संजीव ने विकलांगता को मात देते हुए अपनी काबिलियत से यह सिद्ध कर दिया है कि अगर इरादे मजबूत हों तो कुछ भी असंभव नहीं है।

संजीव कुमार ने दूसरी फ्रेंच ओपन इंटरनेशनल पैरा बैडमिंटन (विकलांग) 2012 मुकाबले में कांस्य पदक जीत कर विकलांगता को मात दी है। प्रतियोगिता फ्रांस के रोडीज में 6 से 9 अप्रैल को हुई थी, जिसमें 13 टीमों ने अपने जौहर दिखाए थे। गौरतलब हो कि इससे पहले भी संजीव बैडमिंटन में कई पुरस्कार जीत कर अपना नाम रोशन कर चुका है। प्रतियोगिता में यह खिलाड़ी ट्राईसाइकिल पर बैठकर ही खेलता है।
विकलांगों की कुश्ती डॉगलैग्स:- शरीरिक तौर पर विकलांग होना लोगों को खेलों से दूर नहीं कर सकता। फिर चाहे खेल कुश्ती ही क्यों न हो। जापान का डॉगलैग्स रेस्लिंगग्रुप ऐसी ही एक संस्था है जो अपाहिज लोगों को कुश्ती लड़ने का मौका देती है। फिर भी बहुत से लोग इस लड़ाई को नकली मानते हैं, जबकि अन्य खेलों की तुलना में डॉगलैग्स को ज्यादा मनोरंजक बनाया गया है।
डॉगलैग्स खेल के संस्थापकों में से एक यूकिनोरी किटाजिमा कहते हैं कि दर्शकों का मनोरंजन करने वाला कोई भी शख्स पहलवान बन सकता है। डॉगलैग्स के एक मशहूर पहलवान ईटीका वे उदाहरण देते हैं कि वे किस तरह चेहरे पर भाव भी प्रकट करते हैं। इन शारीरिक अक्षम खिलाड़ियों के नाम भी हार्ड रॉक, नो सिंपैथी और वेलफेयर पॉवर जैसे रोमांचक होते हैं, ताकि कहीं से भी उन्हें यह न लगे की उन्हें केवल सहानुभूति के तौर पर पसंद किया जाता है।

 व्हीलचेयर बास्केटबॉल- इस खेल की कल्पना द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अस्तीत्व में आयी थी। जब युद्ध के विकलांग दिग्गजों द्वारा रचित व्हीलचेयर बास्केटबॉल का खेल शुरु हुआ। इसमें शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के लिए विशेष रूप से डिज़ाइन की गई व्हीलचेयर पर बास्केटबॉल खेला जाता है। दुनिया में व्हीलचेयर बास्केटबॉल का शासी निकाय अंतर्राष्ट्रीय व्हीलचेयर बास्केटबॉल फ़ेडरेशन (आईजब्ल्यूबीएफ) है। अभी तक दुनिया में कोई बड़ा नाम इस खेल के प्रति ज्यादा आकर्षित नहीं हुआ और ना ही इस खेल को कोई पब्लिसिटी मिली है। लेकिन इतना जरुर हुआ है कि इस खेल को पसंद करने वाले खिलाड़ी व्हीलचेयर पर बैठकर ही सही खेल का लुफ्त केवल देखकर नहीं खेल कर भी लेने में सक्षम हो गये हैं।
ब्लाइंड टेनिस- इंसान की कल्पनायें दुनिया की मौजूद वस्तुओं-सुविधाओं से परे चीजे करने को उत्साहित करती है। इसी का नतीजा है कि नेत्रहीन लोगों के लिए ब्लाइंड टेनिसजैसे खेल का आविष्कार हो सका। इस खेल की खोज का श्रेय जापान के मियोशी टाकी को जाता है, जो खुद नेत्रहीन हैं और बचपन से ही टेनिस के प्रति लगाव ने उन्हें आविष्कारक बना दिया।
शुरुआत में उनका एक ही मकसद था, हवा में तैरती बॉल को ज्यादा से ज्यादा ताकत से मारना। काफी प्रैक्टिस के बाद वे इसमें माहिर हो गए। फिर उन्होंने एक अलग तरह की नरम बॉल खोजी। इस बॉल में आवाज भी होती है, जिसकी स्थिति का अंदाज लगाकर नेत्रहीन व्यक्ति उसे शॉट मार सकता है।

मियोशी की मेहनत रंग लाई और 1990 में जापान में पहली नेशनल ब्लाइंड टेनिस चैंपियनशिप आयोजित की गई। आज देश के हर हिस्से में सैकड़ों नेत्रहीन लोग ब्लाइंड टेनिस खेलते हैं। जापान के अलावा ये खेल चीन, कोरिया, ताईवान, ब्रिटेन और अमेरिका में भी पहुंच गया है। भारत मे यह खेल अभी शैशव अवस्था में है और केवल हैदराबाद में एक संस्थान में इसका प्रशिक्षण कार्य होता है।



विकलांग क्रिकेट -  देश में क्रिकेट की लोकप्रियता इतनी है कि बच्चों-बूढ़ों से लेकर शारीरिक अक्षम लोग भी इसके रंग में रंग जाने को तैयार रहते हैं। लोगों का इसके प्रति लगाव ही एकमात्र कारण है कि आज इस खेल का एक अन्य रुप विकलांग क्रिकेट भी सामने आ गया है। ऐसे में पैरालंपिक कमेटी आफ इंडिया कई टूर्नामेंट का आयोजन कर विकलांग खिलाड़ियों को नया मंच देता है।
हाल ही में कर्नाटक में आयोजित गंधर्व ट्राफी 2012 में कई राज्यों के खिलाड़ियों ने अपनी प्रतिभा दिखाई। उन्हीं प्रतिभावान खिलाड़ियों में एक मोहन ठाकुर भी है, जो स्नातक तृतीय वर्ष का विद्यार्थी है। पटना के विकलांग खेल अकादमी का यह हुनरमंद खिलाड़ी शारीरिक अक्षमता के साथ आर्थिक तंगी का भी शिकार है। पर इसने अपने जज्बे और जुनून से साबित कर दिया कि अगर कुछ करने की ठानी जाये तो मंजिल मिल ही जाती है। इस खिलाड़ी ने कर्नाटक के हुबली शहर में राष्ट्रीय स्तर के पैरालंपिक प्रतियोगिता में बिहार टीम की ओर से भाग लिया और आठ राज्यों की टीमों के बीच तीसरा स्थान हासिल किया।
इसके अलावा, पटना में आयोजित बारहवीं बिहार राज्य पारालंपिक एथेलेटिक्स चैंपियनशिप के डिस्कस थ्रो में द्वितीय स्थान भी ग्रहण किया तथा पन्द्रह सौ मीटर दौड़ में तृतीय स्थान भी प्राप्त किया है। अपनी प्रतिभा के बल पर ही मोहन ने राष्ट्रीय स्तर पर परचम लहराया है। अब बस उसे सरकार से आर्थिक मदद की दरकार है जो उसकी मेहनत को और आगे ले जाने में मददगार हो सके।
विकलांग ओलम्पिक खेल- शारीरिक अक्षम लोगों के लिए खेल का परिक्षेत्र यहीं नहीं रुकता बल्कि दिन-प्रतिदिन नयी-नयी कड़ियां जुड़ती जा रही हैं। अब तो ओलम्पिक खेलों में भी विकलांग खिलाड़ियों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलने लगा है। इस साल लंदन में होने जा रहे विकलांग ओलम्पिक खेलों में उत्तरी कोरिया का खेलदल भी हिस्सेदारी करेगा। इससे पहले उत्तरी कोरिया ने विकलांग ओलम्पिक खेलों में कभी भाग नहीं लिया था।
लंदन ओलम्पिक कमेटी ने इस बाबत साफ कर दिया है कि उत्तरी कोरिया के विकलांग एथलीटों का एक दल पेइचिंग पहुँच गया है। उत्तरी कोरिया के खिलाड़ियों को यहाँ बने एक शिविर में चीन के विकलांग खिलाड़ियों के साथ ट्रेनिंग दी जाएगी। वे तैराकी, टेबल-टेनिस और एथलेटिक्स खेलों में हिस्सा लेगें। लंदन में 29 अगस्त से 9 सितम्बर तक चलने वाले विकलांग ओलम्पिक खेलों के लिए सात भारतीय खिलाड़ियों ने भी अपनी सीट बुक करा ली है।
लंदन ओलम्पिक की पैरा-ओलम्पिक स्पर्धाओं के लिये क्वालिफाई करने वाले हरियाणा के सात विकलांग खिलाड़ियों ने हर प्रतियोगिता के लिए खुद को तैयार बताया है। उन्होंने कहा कि उनका प्रयास है कि जब वो लंदन तक पहुँचे हैं तो आगे भी जायेंगे। इन सात खिलाड़ियों में अमित सरोहा-डिस्कस थ्रो, ज्ञानेन्द्र सिंह घनघस-लाँग जम्प, जयदीप सिंह-डिस्कस थ्रो, अमित कुमार-लांग जम्प, जगमेन्द्र-डिस्कस थ्रो, नरेन्द्र-जैवलिन थ्रो और विजय कुमार-जैवलिन थ्रो शामिल हैं।

छोटे कस्बों की अन्तरराष्ट्रीय प्रतिभाएं- वर्तमान विकलांग प्रतिभाओं से परे कुछ होनहार ऐसे भी हैं जो भविष्य में देश के मान को बढ़ाने की तैयारियों में जुटे पड़े हैं। इनमें एक हैं खेकड़ा कस्बे के अंकुर, जो नेत्रहीन है पर गजब का एथलीट भी है। अपने देश की प्रतियोगिताओं को छोड़िए उसने अमेरिका में हुई नेत्रहीनों की विश्व युवा खेलकूद प्रतियोगिता में विश्व रिकॉर्ड बनाते हुए दो सोने के पदक जीते हैं। उसका कहना है कि वह नेत्रहीन हुआ तो क्या वह देश का नाम रोशन करना चाहता है और इसके लिए वह मेहनत कर रहा है। बकौल अंकुर, अभी तो मैं सीखने के क्रम में हूँ, पर मेरा ख्वाहिश अपनी सच्ची लगन से देश का गौरव बढ़ाना है।
इसी तरह, बड़ौत नगर की सोनिया पैरों से विकलांग है, लेकिन वह अच्छी निशानेबाज है और आजकल जौहड़ी गांव में भारतीय खेल प्राधिकरण के केंद्र पर प्रशिक्षण ले रही है। उसके पास एयर पिस्टल भी नहीं है लेकिन उधार की पिस्टल से प्रशिक्षण लेकर राज्य स्तरीय प्रतियोगिता तक पहुंच गई है। उसका कहना है कि वह विकलांग है और हथियार भी उसके पास नहीं है लेकिन अपनी मेहनत के बल पर वह विदेशों तक में नाम रोशन करेगी। ऐसे ही खेड़की गांव का रहने वाला आकाश भी विकलांग है। वह शाहमल रायफल क्लब बड़ौत पर निशानेबाजी का अभ्यास करता है। उसने स्टेट व नेशनल स्तर पर आठ पदक जीते हैं। पिछले साल उसका चयन जर्मनी में होने वाले व‌र्ल्ड कप के लिए हो गया था, लेकिन पासपोर्ट न बन पाने के कारण वह वह नहीं जा सका था। अब वह पूना में होने वाली मास्टर मीट शूटिंग चैंपियनशिप में भाग लेने की तैयारी कर रहा है।
कहते हैं कि कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो मंजिलें झुककर सलाम करती है। देश और दुनिया के इन शारीरिक अक्षम इंसानों ने भी अपने जज्बे से अपनी मंजिल को अपने सामने झुका दिया है। बहरहाल, जिस तरह मुफलिसी और मायूसी के अंधेरों से निकलकर इस विकलांग खिलाड़ियों ने अपने हौसलों से खुद का आसमान तैयार किया है। जिस तरह इन खिलाड़ियों ने अपनी गरीबी और अक्षमताओं को पीछे ढ़केल दिया है, वह आने वाली पीढ़ी को अपने जज्बों और हौसलों पर भरोसा करने का पाठ साबित होगा। अब वह दिन दूर नहीं जब आर्थिक और शारीरिक रूप से कमजोर बच्चे समझदार होते ही स्टेडियमों का रुख खुद कर लिया करेंगे। उनके लिए बस एक ही बात मायने रखेगी कि हौसला और हिम्मत हो तो विकलांगता तरक्की में आड़े नहीं आती। शारीरिक अक्षम पर हुनरमंद खिलाड़ियों ने साबित कर दिया है कि आगे बढ़ने का जोश और जुनून अगर दिल में जगह बना ले तो इंसानी जज्बा हर कामयाबी को अपनी झोली में डाल लेता है।

क्रिकेट मतलब, शौहरत-पैसा और हसीनाओं का ताना-बाना



जैन्टलमैंस गेम कहे जाने वाला क्रिकेट अब भद्रजनों का खेल नहीं रहा। इसमें सेक्स और सट्टा का तड़का लग गया है, जिससे खिलाड़ी तो खिलाड़ी अब अंपायर भी अछूते नहीं हैं। क्रिकेटरों की रंगीनमिजाजी तो सबके सामने है जिसका ताजा उदाहरण श्रीलंका में आयोजित टी20 विश्वकप में भी देखने को मिला। शोहरत और पैसों की चकाचौंध ने खिलाड़ियों को उनके मूल केंद्रीय भाव से भटका दिया है।
एक समय था जब खिलाड़ी अपने खेल को निखारने के लिए सतत प्रयास करते थे तथा बेहतर खेल प्रदर्शन के बाद भी अपनी कमियों और आउट होने के तरीकों बारे विचार करते थे। पर आज खेल मानसिक मजबूती और कलात्मकता से कहीं परे हो गया है। कल की कलात्मकता की जगह आज के तेज तर्रार शॉट और शारीरिक डीलडौल ने ले ली है। इसी का नतीजा है कि खेल में कलाईयों और टाईमिंग के बजाय लंबे और तगड़े शॉट देखने को मिलते हैं। खैर यह तो परिवर्तन का नियम शास्वत ही है। एक नयी पीढ़ी अपने साथ कुछ नया लेकर आती ही है और उसके ही हाल का कल्चर कहा जाता है। ऐसे में जो पैसा, पब्लिसीटी और हसिनाओं का जो तालमेल देखने को मिल रहा है वह क्रिकेट के इसी संक्रमण काल का द्योतक है। जो बतला रहा है कि क्रिकेट भी बदल रहा है और उसके खेलने वाले भी।
डॉन ब्रैडमैन, विवियर रिचर्ड, सुनील गावस्कर, कपिल देव, स्टीव वॉ से लेकर सचिन तेंदुलकर और राहुल द्रविड़ तक सभी खिलाड़ियों ने खेल में अपने मुताबिक कुछ नया करने की कोशिश की। जिसमें वो काफी हद तक सफल भी रहे और अपने खेल कौशल के आधार पर भी दशकों तक क्रिकेट के एक स्तंभ बने रहे। इनमें सचिन तो आज भी अपने इस दृढ़ प्रतिज्ञ आस्था के साथ जुड़े हुए ही है औऱ शायद जब तक रहें खेल को एक नई विधा बताते भी रहें। ब्रैडमैन से लेकर द्रविड़ तक जितने भी खिलाड़ी आये सबने क्रिकेट को खेल से ज्यादा जीवन का अहम हिस्सा समझ जिया और उसकी गरीमा को बनाये रखने में ही अपनी जीत सुनिश्चित की। पर आज का युवा खिलाड़ी खेल को उनसे बेहतर तरीके से प्रयोग में लाने का हुनर जानते हैं तभी तो लक्ष्मण जैसे क्लास बल्लेबाज के लिए टेस्ट टीम में भी जगह नहीं मिली और दो-चार मैचों का इल्म रखने वाले रोहित, विराट और पुजारा को हाथों-हाथ लिया जा रहा है। यहीं बदलाव है जो वर्तमान क्रिकेट के दौर में देखने को मिल रहा है।
आज के खिलाड़ी खेल को मैदान पर खेलने के बाद भूलते नहीं बल्कि उस खेल के जरिए अपने बाकि समय में भी उसकी खूबियों के मार्फत लाभ उठाने में लगे हैं। कभी आर्थिक लाभ के लिए कभी अईयाशी के लिए अपने प्रसिद्धी को आजमाते रहते हैं। इंडियन प्रीमियर लीग में खिलाड़ियों का महिलाओं के प्रति सलूक और पैसों के लिए मैच फिक्सिंग की बात को कौन भूला सकता है। इसके अलावा अब अंपायरों को भी मैच फिक्स कराने का हुनर आ गया है और हाल के खुलासे ने आईसीसी के छह अंपायरों की पोल भी खोली है। इतना ही नहीं लड़कियों के प्रति लार टपकाने के मामले में भी अंपायर पीछे नहीं हैं आखिर वो भी कभी खिलाड़ी रहे होंगे इस बात को वो भूले नहीं हैं शायद। तभी तो पाकिस्तानी अंपायर अशद रऊफ ने एक पाकी मॉडल को अपनी भूख के बाबत पैसे देकर होटल के कमरे में बुलाने क्रम चलाया था। वो तो शुक्र हो कि उक्त मॉडल का ईमान अब भी कायम था और वो कई रातें रऊफ की रंगीन करने के बाद आखिरकार खुलासा करने पर उतर आयी।

इससे इतर जैंटलमैंस गेम के खिलाड़ियों के प्रति मुंबई टीम की चीयरलीडर रह चुकी दक्षिण अफ्रीकी मॉडल गैबरीला पास्कालोटो ने पिछले साल कुछ पोल भी खोले थे। जिसके कारण उनकी टीम से छुट्टी भी हो गयी थी। गैबरीला की मानें तो 'जेंटलमैन गेम्स' में शामिल कई सितारा क्रिकेटरों के रंग-ढंग मैच के बाद बदल जाते हैं। आईपीएल पार्टियों में लार टपकाते, लड़कियों के इर्दगिर्द मंडराते और सीरियल किसर के रूप में उन्हें देखा जा सकता है। गैबरीला ने तो ब्लॉग पर लिखा भी था कि असली मौजमस्ती तो वीआईपी कमरों में होती है, जहां खिलाड़ी और देर रात तक पार्टी करने वाले स्कैंडल कर सकते हैं। खिलाड़ियों की हरकतों को बारिकी से उघाड़ते हुए गैबरीला ने लिखा है, ‘वो (जैंटलमैन क्रिकेटर्स) पहले आपका चेहरा देखते हैं, फिर आपके पेट के ऊपर, फिर पीठ के नीचे देखते हैं, फिर दोबारा पेट के ऊपर देखते हैं। वो लोग हमें मांस के टुकड़ों की तरह समझते हैं। जो उनके खेल के बाद शायद उनका तोहफा हो जिसे वो अपने बिस्तर पर नोचने की तैयारी में लगे हो।गैबरीला ने कुल 8 खिलाड़ियों को इस बाबत जोड़ा था जिसमें चार ऑस्ट्रेलियाई, एक दक्षिण अफ्रीकी तथा तीन भारतीय खिलाड़ियों के नाम शामिल थे।

क्रिकेट के खेल में फिक्सिंग का तो पुराना नाता रहा है लेकिन उसमें भी अब काफी परिवर्तन आ गया है। वर्तमान समय में खिलाड़ियों को पटाने के लिए भी महिलाओं को चारे की तरह आजमाया जा रहा है। जो अपने हुश्न और मादक अदाओं के बल पर खिलाड़ियों को रिझाती हैं तथा बड़ी कीमत पर उन्हें पटा भी लेती हैं। बालिवुड अभिनेत्री नूपुर मेहता का नाम भी ऐसी ही सुंदरियों में शुमार है जो खिलाड़ियों की फिक्सिंग कराने का भी हुनर जानती हैं। एक समाचार पत्र ने अपनी रिपोर्ट में यह दावा किया था कि नूपुर जैसी हॉट मॉडल क्रिकेटरों को फंसाने में सटोरियों की मदद करती हैं। उसने तो यहां तक कहा था कि नूपुर श्रीलंका क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान तिलकरत्ने दिलशान के साथ डेटिंग कर चुकी हैं। हालांकि आईसीस जांच में कुछ भी साबित नहीं हो पाया था लेकिन यह बात भी कैसे मानी जाये कि बिना आग के ही धुआं उठने लगा था। कुछ तो इस क्रिकेट में है तभी तो झारम-झार पैसों और शोहरत की बारिश के बाद अब महिलाओं का भी क्रम चल पड़ा है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कल के क्रिकेट से आज का क्रिकेट काफी भिन्न हो गया है, ऐसे में आज के इस खेल की परिभाषा पैसा-शोहरत और हसीनाओं के पुट के बिना अधूरी ही जान पड़ती है।